गौरांग महापृभु के मुख्य पार्षद श्री अद्वैताचार्य
निमाई (चैतन्य महापृभु) की चाँचल्य वृत्ति से माता पिता को बहुत ही आनन्द प्राप्त होता. विश्वरूप (निमाई के बडे भाई) इनसे 10 12 वर्ष बडे थे, किन्तु वे जन्म से ही बहुत अधिक गंभीर थे इसलिए पिता भी उनका आदर करते थे. अब विश्वरूप की अवस्था 16 वर्ष की हो चली थी.
माता ने भोजन बनाकर निमाई को अद्वैताचार्य की पाठशाला में विश्वरूप को बुलाने भेजा. निमाई के शरीर की कांति तपाये हुए सुवर्ण की भांति सूर्य के प्रकाश के साथ झलमल कर रही थी.
गौर वर्ण शरीर पर स्वच्छ धोती, आधी धोती ओढे हुए, उनके बडे बडे -विकसित कमल के समान सुन्दर और स्वच्छ नेत्र मुख चन्द्र की शोभा को द्विगुणित कर रहे थे,
आचार्य के सामने हँसते-हँसते इन्होंने भाई से कहा, दद्दा चलो भात तैयार है अम्मा बुला रही है.
विश्वरूप निमाई को गोद में बिठाकर स्नेह से बोले, – निमाई आचार्य देव को प्रणाम करो, ये सुनकर निमाई लज्जा के कारण विश्वरूप की गोदी में छिपे जाते थे,
जैसे ही निमाई के साथ विश्व रूप आचार्य से आज्ञा लेने गये, आचार्य ने निमाई को पहली बार खूब ध्यान से देखा, देखते ही उनके सारे शरीर में बिजली सी दौडने लगी.
उन्हें प्रतीत होने लगा कि मैं इतने दिन से जिन भव भयहारी जनार्दन की उपासना कर रहा हूं वे ही जनार्दन साकार बनकर बालक रूप में मुझे अभय प्रदान करने आये है.
उन्होंने मन ही मन निमाई के पाद पद्मो में प्रणाम किया और अपने भाव को दबाते हुए बोले, विश्वरूप ये तुम्हारे भाई हैं न.
विश्व रूप ने नम्रता पूर्वक कहा, – हां आचार्य देव. ये बडा चंचल है आप इसे गंगा किनारे देखे संसार को उलट पलट कर डालता है. मां तंग हो जाती है.
जाते जाते निमाई ने दो तीन बार निमाई को देखा. आचार्य चेतना शून्य से हो गये, समझ न सके यह बालक हमारे चित्त को अपनी ओर क्यों आकर्षित कर रहा है.
श्री अद्वैताचार्य जी परिचय
अन्त में ये आचार्य गौरांग महापृभु के मुख्य पार्षद हुए, जिनके द्वारा गौरांग अवतारी माने जाने लगे. इसलिए अब ये जान लेना आवश्यक है कि अद्वैताचार्य कौन थे, और इनकी पाठशाला कैसी थी.
जो अद्वैत आचार्य गौर धर्म के प्रधान स्तम्भ है, गौरांग लीलाओं के जो प्रथम प्रवर्तक, और संयोजक समझे जाते है,
जिन्होंने वयोवृद्ध, विद्या वृद्ध होने पर भी बालक गौरांग महापृभु की पद रज को अपने मस्तक का सर्वोत्तम लेपन बनाया, जिन्होंने गौरांग से पहिले अवतरीण होकर गौर लीला के अनुकूल वायुमंडल बनाया.
उत्तम से उत्तम रंगमंच तैयार किया, उस पर गौरांग महापृभु को प्रधान अभिनय कर्ता बनाकर भक्तो के साथ भांति भांति की लीलाएं करायीं और गौरांग के तिरोभाव के अंनतरअपनी सम्पूर्ण लीलाओं का संवरण करके आप भी तिरोहित हो गये.
उन अद्वैताचार्य के पूर्वज श्री हट्ट (सिलहट) जिले में लाउड परगने के अन्तर्गत “नवग्राम नाम” के एक छोटे से ग्राम मे रहते थे. हम पहिले ही बता चुके है कि उस समय भारत मे बहुत छोटे छोटे राज्य थे.
जिनमें प्रायः स्वतंत्र ही नरपति शासन करते थे. लाउड भी एक छोटी सी रियायत थी, उन दिनों उस रियासत के शासन कर्ता महाराज दिव्य सिंह जी थे.
महाराज परम धार्मिक तथा गुण ग्राही थे. उनकी सभा में पण्डितो का बहुत सम्मान होता था, आचार्य के पूज्य पिता “कुबेर” तर्क पञचानन महाराज की सभा के राज पण्डित थे.
ये न्याय के अद्वितीय विद्वान थे, ये बहुत धनवान थे. किंतु एक दुख था इनके कोई संतान नहीं थी, इनकी पत्नी “लाभा देवी” के गर्भ से बहुत से बच्चे हुये, लेकिन असमय ही संसार को त्याग कर परलोक गामी हुये.
इस कारण ये दोनों अपने पुराने गांव को छोड़कर नवदीप के इस पार शांतिपुर मे रहने लगे. यहीं पर लाभा देवी के यथा समय पुत्र उत्पन्न हुआ. पुत्र का नाम रखा गया कमलाक्ष. ये ही कमलाक्ष आगे चलकर महाप्रभु अद्वैताचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए.