श्री श्रीनारायणभट्ट जी का जन्म व उनके द्वारा श्री जी(राधारानी) का प्रागट्यः
दक्षिण देश में मदुरापत्तन में भृगु वंशी श्री वत्स गोञीय, ॠग्वेदी, भैरव नामक महा विद्वान तैलंग ब्राह्मण रहते थे। वे मध्वमतावलम्बि वैष्णव व कृष्ण भक्त थे। उनके रंग नामक एक पुञ था जो भट्टभास्कर नाम से प्रसिद्ध हुए। भक्त भास्करभट्ट के दो पुञ हुए। बङे का नाम गोपाल जी तथा कनिष्ट का नाम “श्री नारायण जी” था। यह नारायण जी ही चरिञ नायक, ब्रजोद्धारक, रासाचार्य्य, नारदावतार श्री श्री नारायण भट्ट जी हैं।
एक समय ब्रजरसिक नारद जी तीर्थ समूह भ्रमण करते हुए कहीं भी शान्ति ना पाकर सर्वानन्दमय श्री ब्रजमण्डल में आये। किन्तु उस समय तीर्थ समूह लुप्त हो गये थे। तब ब्रजबिहारी ने दर्शन देकर कहा कि भो! नारद! तुम ब्रजरसिक, ब्रजपरायण, निरन्तर मेरे प्रेम से उन्मत्त हो।ब्रजमण्डल लुप्त हैं तुम शीघ्र ब्रज में जाओ, ब्रज का उद्धार करों व रासलीला का प्रकाश करों। नारद जी ने दक्षिण में जाकर देवी यशोमती के गर्भ में जन्म लिये। जन्म का समय 1588 सम्वत (1531 साल) वैसाख शुक्ल पक्ष नरसिंह जन्म दिवस का दिवा भाग हैं। आप धीरे-धीरे बढ़ने लगे। पिता जी ने जनेऊ संस्कार कराया। पितृव्य शंकर जी से व्याकरण, वेद, वेदांग पढ़ने लगें। द्वादश वत्सर वयस में समस्त विद्या में पांडित्य लाभ कर गुरु दक्षिणा देकर अपने घर आये। वहाँ ब्रज प्रदीपिका आदि धर्म ग्रंथ समूह का निर्माण किया। तदनन्तर गोदावरी स्नान को पधारें। उसी समय वहाँ श्री राधिका के साथ हरि ने दर्शन देकर कहा कि तुम शीघ्र ब्रजमण्डल जाओ। वहाँ पर लुप्त तीर्थों का उद्धार करों व रासलीला का प्रकाश करों। राधा कुण्ड में मदन मोहन जी की मूर्ति विराजित हैं। कृष्णदास ब्रह्मचारी सेवा कर रहें हैं, सनातन गोस्वामी भी वहाँ पर उपस्थित हैं तुम्हारे गुरु कृष्णदास ब्रह्मचारी जानना। तुम वहाँ जाकर मंञदीक्षा लेकर सम्प्रदाय रहस्य सीखों।
भगवान जी ने कहा, मेरा यह स्वरुप लाडिलेय हैं इस मूर्ति को मैं तुम्हें देता हुँ। सर्वदा साथ रखना, सेवा करना ऐसा कह कर अन्तर्धान हो गयें। श्री नारयणभट्ट जी श्री लाडिलेय मूर्ति को लेकर ब्रज को चल पङे। अढ़ाई वत्सर में राधा कुण्ड पहुँचे, मार्ग में लाडिलेय बालक बनकर बातचीत करते, हास्य परिहास करते, कोई मनुष्य आता तो मूर्ति बन जाते। राधा कुण्ड में ब्रह्मचारी जी को श्री मदन मोहन जी ने दर्शन दिये।इस तरह श्री नारायणभट्ट जी ब्रह्मचारी जी से सम्प्रदाय रहस्य सीखने लगें।
बाएं ओर राधा कुण्ड और दाहिने ओर कृष्ण कुण्ड। (चित्र में)
श्री ब्रह्मचारी जी ने श्री नारायणभट्ट जी को गोपल मंञ भी दिया। भक्ति शास्ञ का अध्ययन करके ब्रज के तीर्थ समूह का उद्धार किया।
“भट्टनारायण अति सरस ब्रजमण्डल सों हेत। ठौर ठौर रचना कियो निकट जानि संकेत॥”
फिर राधा कुण्ड में अपने गुरु के पास वास किया तथा अनेक ग्रंथो का निर्माण किया। फिर कुछ दिन बाद बरसाने के पास ऊँचे गाँव में रहने लगे। वहाँ श्री बलदेव जी का प्राकट्य किया। “आज भी वही श्री बलदेव जी की मूर्ति ऊँचे गाँव मंदिर में विराजित हैं”।
रेवती रमणं मां त्वं प्रकटी कर्त्तु मर्हसि। शिलापृष्ठ स्वरुपोSयं भाराक्रान्तोSस्मि दीक्षित॥13॥ प्रातः काले ततो भट्टो जनानाहूय सर्वञ। खननं कारयामास भूमेस्तैर्ब्रजवासिभि॥14॥ शिलापृष्ठ स्वरुपं तत् रेवतीरमणस्य सः। गृहित्वा स्थापयामास मन्दिरे तृणनर्म्मिते॥15॥
कुछ रोज ऊँचे गाँव में श्री बलदेव जी की पूजा करते रहें।उसी समय श्री राधिका जी(श्री जी) ने प्रेरणा करी कि गहवर वन में आओ सों श्री नारायणभट्ट जी गहवर वन को चल दिये वहाँ पहुँच श्री जी(राधारानी) का ध्यान करने लगें।
गहवर वन में श्री नारायणभट्ट जी, श्री जी(राधारानी) का ध्यान करने लगे। श्री जी (राधारानी) ने कृपा करी।श्री नारायणभट्ट जी के सामने श्री जी (राधारानी) प्रकट हुई और अपने रुप को मूर्ति में स्थापित किया।
“अथ नारायणे भट्ट आययौ ब्रह्मपर्वते। प्रदक्षिणां पकुर्व्वाणः पश्य पादपगह्वरं॥34॥ गोपीभावं समास्थाय विचचार महामुनिः। अकस्मात दद्दशे तञ राधिकां बालरुपिणीम॥35॥ अतिकोमलपदाभ्यां लालेन सह गामिनीम। द्दष्टवा नारायणे भट्टः कृताञ्जलि पुटो भवत् ॥36॥ तमुवाच तदा राधा कृतार्थस्त्वं द्विजोत्तम! । मम दर्शन माञेण तथा प्याग्यां करोमि ते॥37॥ आगन्तव्यं त्वया ब्रह्मन्नर्द्धराञादनन्तरम। अञैव मम मूर्तिस्तु वर्त्तते ब्रह्मपर्वते॥38॥ लप्स्यासि त्वं न भन्देहो मूर्ति मे मानुषा कृतिम् । इत्युक्त्वा लाडिलीलालौ तञैवान्तरधीयतां॥39॥ नारायणोSपि तञैव समये प्राप्तवान्मुनिः। ददर्श युगलं तञ मूर्तिरुपधरं परम॥40॥ अभिषेकं च कृतवान भद्दो भा करसंभवः ।इत्याधिकं॥
जब श्री नारायणभट्ट जी का गोपी भाव देखा तो उनके सामने राधिका (श्री जी) जी बाल रुप में प्रकट हुई। उनके चरण अति कोमल थे। तब श्री नारायणभट्ट जी ने दोनों हाथ जोङ लिये और वो राधा कृपा से कृतार्थ हुए। तब उन्होंने कहा कि मेरी मूर्ति ब्रह्माचल पर्वत पर हैं, जिनका नाम् लाडिलीलाल हैं तब श्री नारायणभट्ट जी ने श्री जी(राधारानी) को प्रकट किया और उनकी सेवा करने लगें।
सखी री जन्मी हैं श्री राधा । गौरांगी गुण निधि नव नागरि , रुप अनुप अगाधा ॥ जाको नाम जपत ही जन की , दूर होत दुःख बाधा । मंगल करनी बेदन बरनी , हरनी जगत उपाधा ॥ दया निधान खान करुणा की , सब बिधि सब की साधा ॥ सरस माधुरी श्याम सलोनी , तजे न पल छिन आधा ॥
श्री नारायणभट्ट जी ने बरसाने में ब्रह्माचल पर्वत के ऊपर दो झोपङी बनायी, एक झोपङी में श्री लाडली जी (श्री जी) को पधराया, दूसरी झोपङी में स्वंय रहकर सेवा करने लगें। गाँव-गाँव से भक्तजन आने लगें। धीरे-धीरे दूर दूर तक श्री राधारानी का प्रचार प्रसार हुआ। भक्तजन राधे-राधे करके अपने जीवन को धन्य बना रहे थे। श्री नारायणभट्ट जी ने बाद में अपने प्रिय शिष्य “भक्त श्री नारायण दास जी श्रोती” को श्री लाडली जी की सेवा का भार सौंप कर स्वंय ऊँचे गाँव में श्री बलदेव जी की सेवा करने लगें।
श्री लाडली जी(श्री जी) का प्राकट्य काल सम्वत् 1626 (वर्ष 1569) आषाढ़ शुदी दौज का हैं। उस दिन से आज तक श्री नारायणदास जी श्रोती के वंशज “गोस्वामी परिवार” श्री लाडली जी का व श्री स्वामी जी का पाट उत्सव मनाते हैं।
इधर में श्री नारायणभट्ट जी ने श्री जी (राधारानी) के प्राकट्य से पहले राजा अकबर बादशाह के कोषाध्यक्ष टोडरमल को ब्रज में लाकर श्री बलदेव जी का निर्माण, कुण्ड समूह का निर्माण तथा प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। ऊँचे गाँव में श्री भट्ट जी ने 52 ग्रंथ का निर्माण किया फिर बालको को राधा-कृष्ण बनाकर रासलीला करते थे (रासलीला श्री नारायणभट्ट जी ने ही चलायी थी) ।
एक दिन सांकेत गाँव में श्री राधारमण मूर्ति का दर्शन हुआ। उनके आदेशानुसार समस्त भागवत की रसिकाल्हादिनी नाम टीका बनायी। तब बूढ़ी लीला भी होने लगी जो अब तक भाद्रपद मास में सप्तमी से तेरस तक होती आ रही हैं। फिर वैष्णव मंडली भक्तजन संग ब्रजयाञा, वनयाञा करने लगें। ब्रजयाञा भी उनसे चली, ब्रजयाञा व वनयाञा के लिये दो ग्रंथ बनवाये। 1.ब्रजभक्ति विलास 2. वृह्त्ब्रजगुणोंत्सव । जब समस्त कार्यों का समाधान हो गया तब लाडिलेय स्वरुप से अन्तर्ध्यान होने की प्रार्थना कीये। तब श्री लाडिलेय ने प्रकट होकर प्रार्थना मान ली। तब आप जन्माष्टमी के दिवस पुञ श्री दामोदरभट्ट गोस्वामी जी को गद्दी का समस्त भार देकर हजारों शिष्य मण्डली व वैष्णव मण्डलियों की उपस्थिति में नारद जी का प्रदुर्भाव हुआ। यह समय सम्वत 1700 से पहले का अनुमान किया जाता हैं।
“श्री भट्ट नारायण की जय बोलो, स्वामी जी की जय जय बोलो”
श्री नारायणदास जी गुरु जी की देख-रेख में श्री लाडली जी की सेवा-पूजा करने लगें। तब एक दिन स्वामी जी को चिन्ता हुई कि इनके बाद कौन सेवा-पूजा करेगा। तब उन्होंने श्री नारायणी देवी के साथ विवाह कराया। उनसे तीन पुञ हुए 1. दादा 2. बाबा 3. लक्ष्मण । इन्हीं तीनों से गोस्वामी परिवार बढ़ा। जो आज तक श्री लाडली जी (श्री जी) की सेवा के अधिकारी हैं व प्रेम व श्रद्धा से सेवा-पूजा कर रहे हैं।
इसके बाद एक दिन लक्खा सिंह नाम का बनजारा श्री जी (राधारानी) की महिमा सुनता हुआ बरसाने पहुँचा। ब्रह्माचल पर्वत के पीछे डेरा डाला। फिर वह दर्शन के लिये श्री जी (राधारानी) के मंदिर में गया। शयन आरती पर शंख के जल का छीटा लगा, पुजारी जी ने भोग-प्रसाद दिया। प्रसाद खाय ह्रदय शरीर सब पविञ हुआ। उस समय उसकी समाधि लग गयी, श्री जी (राधारानी) ने पविञ ह्रदय जान कृ पा करी। तभी उसने संकल्प लिया कि मेरा सब कुछ तन, मन , धन श्री जी को अर्पण हैं। तब उसने विशाल मंदिर बनवाया। श्री जी को उसमें पधराय सेवा चली तथा अपनी सारी सम्पत्ति पर्वत के पीछे खेतों में गाङ दी, बीजक बना दिया कि शिखर की परछाई जब पङेगी वहाँ पर धन गढ़ा हैं (बीजक उपलब्ध नहीं)। तब उसके बाद भक्त बनजारा ने अपना सारा जीवन श्री जी की सेवा में लगा कर अंत में श्री राधा जी की कृपा से कल्याण हुआ। तब से बङे-बङे सेठ आने लगे। मंदिर और विशाल हुआ तथा श्री जी (राधारानी) की सेवा-पूजा होने लगी और भक्तजन भोग प्रसाद लाने लगे।
उसके बाद मंदिर का निर्माण जीर्णोद्धार होता गया। हरगुलाल सेठ बेरी वाले ने सिंहपोर मंदिर आदि का जीर्णोद्धार करवाया तथा श्री जी का भोग-राग फल-फूल की सेवा की, एक कालेज का निर्मान करवाया जो आज तक चल रहे हैं। श्री जी के वास्ते फल-फूल जल के लिये राधाबाग व किशनबाग भी हैं। श्री जी (राधारानी) राधाबाग का पानी पीती हैं।
गुरु परम्परा :– जो कि “श्री नारायणभट्ट चरितामृत” में उल्लेखित हैं।
1 : श्रीमन् नारायण
2 : श्री ब्रह्मा
3 : श्री नारद
4 : वेदव्यास
5 : मध्वाचार्य्य
6 : श्री पद्मनाभ
7 : श्री नरहरि
8 : श्री माधव
9 : श्री अक्षोभ
10 : श्री जयतीर्थ
11 : श्री ग्यानसिन्धु
12 : श्री महानिधि
13 : श्री विद्यानिधि
14 : श्री राजेन्द्र
15 : श्री जयधर्म्म
16 : श्री ब्रह्मण्य
17 : श्री पुरुषोत्तम
18 : श्री व्यासतीर्थ
19 : श्री लक्ष्मीपति
20 : श्री माधवेन्द्र
21 : श्री इश्वरपुरी
22 : श्री इश्वरपाद शिष्य श्री राधा कृष्णमिलित विग्रह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु
23 : महाप्रभुपार्षद श्री राधिका स्वरुप श्री गदाधर पंडित गोस्वामी
24 : पंडित श्री गदाधर गोस्वामी शिष्य इन्दुलेखावतार श्री कृष्ण दास ब्रह्मचारी
25 : ब्रह्मचारी शिष्य ब्रजाचार्य्य, रासलीलानुकरणाचार्य्य, श्री नारदावतार, ब्रज याञा मार्ग प्रदर्शक “श्री श्रीनारायणभट्ट जी”
श्री नारायणभट्ट जी के अनेक शिष्य-प्रशिष्य हुये, मारवाङ, करौली आदि में।
अब हम ब्रजाचार्य्य, रासाचार्य्य, ब्रजयाञाचार्य्य, श्री जी (राधारानी) तथा श्री नारायणभट्टाचार्य्य जी की जय-जयकार करके सबसे क्षमा चाहते हैं। कोई ञुटि होए तो श्री जी का सेवक जानकर रसिकजन, प्रेमीजन, भक्तजन अवश्य क्षमा भाजन करें। बोलो लाडलीलाल की जय, स्वामी जी की जय, श्री भट्टनारायण की जय जय, श्री राधारानी की जय हो।
नोट : आगे हमे प्राप्त होने पर श्री नारायणदास जी श्रोती , उनके वंशज (गोस्वामी परिवार) की वंश परम्परा भी लिखेगे। यदि किसी के पास कोई प्रमाण हो, श्री नारायणभट्ट जी से सम्बन्धित जानकारी हो तो सहर्ष हम से सम्पर्क करें। जिससे हम श्री नारायणभट्ट जी व श्री जी (राधारानी) का प्रचार-प्रसार कर सकें जिससे भक्तजनों को लाभ हो।
गोस्वामी श्री केशव देवात्मज गोस्वामी पंडित श्री प्रियालाल जी सोपुरवाली कुंज, बरसाना से प्राप्त।
श्री राधारानी (श्री जी) मंदिर में मनाये जाने वाले उत्सव आदि :–
आषाढ़ सुदी दौज को श्री राधारानी जी व श्री नारायणभट्ट जी का पाट उत्सव मनाते हैं। इस दिन सभी गोस्वामी परिवार हलुआ व लोई बनाकर श्री स्वामी जी की पूजा करते हैं व श्री राधारानी (श्री जी) की जय जयकार करते हैं।
श्रावण मास में सिंघारा तीज से पूर्णिमा तक झूला पङते हैं। श्री जी (राधारानी) बाहर (जगमोहन में) में चाँदी सोने के हिंडोले में झूला झूलती हैं। तीज को शाम को श्री राधारानी नीचे सफेद छत्तरी (जन्म स्थान) में सभी भक्त जनों को दर्शन देती हैं।
भाद्रपद मास में श्री कृष्ण जी का जन्मोत्सव रात 12 बजे मनाते है स्नान, भोग, आरती आदि। 15 दिन बाद भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष, अष्टमी तिथि को राधाष्टमी प्रातः 5-30 बजे बङी धूम धाम से मनायी जाती हैं। उस समय श्री राधारानी जी को दूध-दही से स्नान कराया जाता हैं। बङी संख्या में भक्तजन आते हैं उसके एक दिन पहले लडडू लीला, समाज गायन (गोस्वामी परिवार द्वारा) होता हैं। उसी दिन शाम को नीचे जन्म स्थान (सफेद छतरी) में सभी को दर्शन देती हैं।
उस समय आकाश में देव. गन्धर्व, अप्सरा सभी फूल बरसाते हैं। इस समय बूढ़ी लीला शुरु होती हैं और चाव (शोभा याञा) भी निकलती हैं। पूर्णिमासी को राधा बाग में महारास होता हैं।
आश्विन मास में श्री जी (राधारानी) मंदिर पर ” साँझी” बनती हैं। आश्विन शुक्ल पक्ष में शरद् पूर्णिमासी को सफेद पोशाक में बाहर दर्शन होते हैं व खीर का भोग लगता हैं।
कार्तिक मास में दीपावली पर रोशनी से मन्दिर की शोभा देखते बनती हैं व गोवर्धन वाले दिन मंदिर पर अन्नकूट का भोग लगता हैं व सभी गोस्वामी परिवार प्रसाद पाते हैं।
पौष मास में राधा जी को खिचङी का भोग लगता हैं 20 दिन पौष के व 10 दिन माघ के।
माघ मास में बसंत पंचमी पर श्री राधा जी बसंती पोशाक में दर्शन देती हैं। उसी दिन से होली की शुरुआत होती हैं। अवीर गुलाल उङता हैं, समाज में पद में गाये जाते हैं।
फाल्गुन मास में रंगीली होली नवमी के दिन रंगीली गली में बङी धूमधाम से होती हैं। ढ़ोल नगाङे बजाकर पद गाते हैं। उस दिन नन्दगाँव से गोपबालक ढ़ाल लेकर आते हैं व बरसाने की गोपियाँ (जो गोस्वामी परिवार की बहू) होती हैं वे लठ्ठ बरसाती हैं इसे बरसाने की लठ्ठमार होली कहते हैं और मंदिर पर रंग की होली होती हैं कोई भी भक्त ऐसा नहीं जिस पर रंग ना चढ़ा हो, अवीर गुलाल उङते हैं।