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Krishna Lila

दध बेचें सुघड़ ब्रजनार

टिप्पणी: ब्रज भाषा के गीत हों और राधा-कृष्ण-गोपियों के वृतान्त न होंइस मधुर लय वाले कहानी-गीत में एक नव-विवाहिता गोपी का प्रसंग है जो कृष्ण से अनभिज्ञ है। गोपी सास की शिक्षा को नकारसोलह सिंगार कर दही बेवने निकलती है। रोकी जाने पर गोपी कृष्ण को छोटी जाति का अहीर बताकर दुतकारती है। (वह स्वयं तो उच्च गुर्जर जाति की है भाई।) गोपी का अज्ञान तथा कृष्ण का अन्याय देखते ही बनता है। बताओनव-विवाहिता को आत्मज्ञान देने लग गए!

दध  बेचें सुघड़ ब्रजनारसो दध बेचन हरे हरेसो दध बेचन निकलीं |

सास कहे सुन मेरी बहुअर दध बेचन मत जा ——2

राह में कान्हा धेनु चरावेतोड़े नौलखा हार

झपट लेगा हरे हरे झपट लेगा नथ दुलरी || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार ——

बहू कहे सुन मेरी सासुल दहि बेचन मैं जाऊँ——-2

उस कान्हा की मति हर लाऊँलखे जो नौलखा हार

छुए जो मेरी हरे हरे छुए जो मेरी नथ दुलरी || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार ——

बरसाने से चली गुजरिया कर सोलह सिंगार—- 2

बाल बाल गज-मोती पोएपहना नौलखा हार

पहन लीनी हरे हरे पहन लीनी नथ दुलरी || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार ——

बंसी-बट के बीच कन्हैया खड़े चरावें गाएँ——2

मोर-मुकुट सिर ऊपर सोहेगल वैजंती माल

अधर सोहे हरे हरे अघर पे लागी मुरली || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार ——

कान्हा को लख कहे गुजरियादेखन में तो नीक

भले घरन का लागे फिर भीकाम करे क्यों नीच

दही की माँगे हरे हरे दही की क्यों माँगे तू भीख || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार 

भीख तो माँगूँ प्रेम की तेरेमत कर पाँच और तीन ——2

अपने दहि का भोग लगा देनहीं तो लूँगा मैं छीन

बखेरूँ यहीं हरे हरे बखेरूँ तेरी सारी गगरी || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार ——

छीना-झपटी मत कर कान्हाफाटे मेरा चीर—- 2

मैं चन्द्रावल गूजरी कहिए तेरी तो जात अहीर

के तेरी-मेरी हरे हरे के तेरी-मेरी नाहीं बने || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार ——

दूध-दही का दान जो लूँगादूँगा तुझको ज्ञान——- 2

मैं हूँ पुरुष और तू है प्रकृतिसोच जरा धर ध्यान

दिखेंगे तुझे हरे हरे दिखेंगे तुझे हरी गुजरी || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार ——

चन्द्र सखी लख रास रचैया बार-बार बलिहार —- 2

मथुरा जी में जनम लिया और नाचें ब्रज के मँझार

धन्य हुए हरे हरे धन्य हुए ग्वाल गुजरी || दहि बेचें सुघड़ ब्रजनार ——

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